‘नेहरू की आदिवासी पत्नी’ : महिलाओं का दर्द और समाज का दोहरापन

Spread the love

समाज विरोधाभासों से भरा हुआ है. महिलाओं को लेकर यह विरोधाभास कुछ ज्यादा ही है. एक तरफ हम हर स्त्री को देवी समझते हैं तो दूसरे जरा जरा सी बात पर स्त्री को अपवित्र मानकर उसका तिरस्कार करने को आमादा रहते हैं.

अभी 2 दिन पहले ‘नेहरू की आदिवासी पत्नी’ की मौत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. जिसे तत्कालीन पीएम पंडित जवाहरलाल के साथ एक दिन की नजदीकी इतनी भारी पड़ी कि पूरा जीवन नरक बन गया. त्रेता काल से ही भारतीय समाज में महिलाएं इस तरह के दुख को झेलतीं रहीं हैं. हालांकि देश में चीजें बहुत बदलीं हैं पर एक बहुत बड़े हिस्से के लिए दुनिया अभी भी वैसी है जैसी कई दशकों पहले थी.

देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आदिवासी पत्नी की कहानी में स्त्री पक्ष का वही दुखती रग है. कैसे हमारा समाज एक केवल छोटी सी बात पर स्त्री को अपवित्र मान लेता है और वह बेचारी बनकर दुनिया गुजारने को मजबूर हो जाती है. विरोधाभास है पहले हमने उन्हें (नेहरू की आदिवासी पत्नी) अपमानित किया अब मरने के बाद उन्हें सम्मानित करने की मांग कर रहे हैं.

नेहरु की आदिवासी पत्नी, जो बिना गलती भुगतीं आजीवन सजा

झारखंड के धनबाद ज़िले में एक आदिवासी गांव है खोरबोना. 1959 में पंचेत बांध का उद्घाटन करने के लिए पंडित नेहरू आ रहे थे. बांध निर्माण कंपनी दामोदर वैली कॉर्पोरेशन के अ‍फसरों ने मंच के पास नेहरू का स्वागत करने के लिए खोरबोना गांव की ही 15 साल की लड़की बुधनी मंझिआन को खड़ा कर दिया. नेहरू को बुधनी ने माला पहनाई, जिसे उन्‍होंने अपने गले से निकालकर बुधनी को पहना दिया. जब बटन दबाकर बांध के उद्धाटन की बात आई तो पंडित नेहरू ने बुधनी को ही मंच पर बुला लिया और उससे बटन दबवाया. इस दौरान नेहरू और बुधनी की नजदीकी वाली तस्‍वीर और उससे जुड़ी खबर कोलकाता से प्रकाशित ‘स्टेट्समैन’ और ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ आदि में प्रकाशित हुई. लेकिन, यह सब दृश्‍य बुधनी के समाज को चुभ गए.

दिन में पीएम के साथ मंच पर बैठी बुधनी को उनके गांव के लोग रात में गालियां दे रहे थे. उसी रात खोरबोना गांव में संथाली समाज की बैठक बुलाई गई. कहा गया कि आदिवासी परंपरा के मुताबिक माला वर को पहनाते हैं इसलिए वह नेहरू की पत्नी बन गईं. चूंकि, नेहरू जाति से संथाली नहीं हैं, इसलिए एक ग़ैर-आदिवासी से शादी के आरोप में संथाली समाज ने बुधनी को जाति और गांव से बाहर निकालने का फ़ैसला सुना दिया.

बुधनी ने अपने समाज को यह साफ-साफ बताया कि उन्होंने नेहरू को माला नहीं पहनाई. नेहरू ने सम्मान में मिली माला उठाकर बुधनी को पहना दी थी. लेकिन संथाल समाज से मिली उनकी सजा बरकरार रही. बुधनी की मौत अभी 2 दिन पहले ही हुई है.अपनी मौत के बाद अब वो फिर चर्चा में हैं. समाज का विरोधाभास देखिए कि आज वही संथाल समाज उनकी मूर्ति पंडित नेहरू की मूर्ति के बगल में लगाने की मांग कर रहा है. उनके परिवार के लिए सरकार से पेंशन की भी डिमांड कर रहा है.

विस्थापित किसानों का दर्द

विस्थापित किसानों का दर्द भी बयां करती है आदिवासी बुधनी मांझिआन की कहानी. उदारीकरण के पहले तक भारत में डैम,सरकारी कारखानों, सड़क या रेल की जमीन के लिए किसान कभी अपनी जमीन सरकार को स्वेच्छा से नहीं देते थे. इसका कारण ये था कि उनकी जमीन तो सरकार ले लेती थी पर मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम न के बराबर होती थी. सरकारें तमाम तरह की लिखित गारंटी देतीं थीं पर कुछ सालों बाद ही अपने किए वादों से सरकारें मुकर जातीं थीं.

हिंदुस्तान समाचार पत्र की एक रिपोर्ट के अनुसार बुधनी के परिवार के साथ भी ऐसा कुछ हुआ.1952 में बांध का निर्माण शुरू हुआ और बुधनी के परिवार की जमीन बांध के लिए अधिग्रहीत हो गई. बुधनी का परिवार इस बांध के लिए मजदूरी करने लगा. पर 1962 में बुधनी और उसके परिवार सहित तमाम अन्य मजदूरों का कॉन्ट्रेक्ट खत्म हो गया. अब उनके पास जीवनयापन के लिए कुछ नहीं था.काम नहीं होने के चलते बुधनी का परिवार वहां से बंगाल के पुरुलिया चला गया. हालांकि 1985 में जब राजीव गांधी आसनसोल पहुंचे तो वहां किसी तरह बुधनी ने राजीव गांधी से मुलाकात की. राजीव गांधी की कृपा से बुधनी को दामोदर वैली कॉर्पोरेशन में नौकरी मिल गई.जहां से 2005 में बुधनी रिटायर हुईं.

नेहरू दामोदर वैली कॉर्पोरेशन जैसे प्रोजेक्ट्स को आधुनिक काल के मंदिर कहा करते थे. पर विस्थापित किसानों के साथ जो सुलूक होता था उसके चलते लोग अपनी जमीन देने को तैयार नहीं होते थे. नेहरू के बाद कई परियोजनाओं के लिए जमीन का संघर्ष दशकों तक चला है. हालांकि उदारीकरण के बाद तस्वीर बदली है. लोग खुद चाहते हैं कि उनकी जमीन हाइवे प्रोजेक्ट में या किसी सरकारी अधिग्रहण वाली प्रोजेक्ट में चला जाए . उसका एक मात्र कारण भरपूर मुआवजा है . जिस किसान की जमीन का अधिग्रहण होता है उसका परिवार कई पीढ़ियों के लिए राजा हो जाता है. शायद यही कारण है कि देश में बनने वाली ग्रीन फील्ड एक्सप्रेसवेज के लिए कहीं भी जमीन के अधिग्रहण में दिक्कत नहीं आई है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *